Tuesday, April 22, 2025
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देश को बेवकूफ बनाने के ये तरीके

 

“अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l”……भारत में अहिंसा के पुजारी का ढोंग करने वाले महात्मा गाँधी ने हिन्दुओ की सभा में हमेंशा यही श्लोक पढते थे लेकिन हिन्दुओ को कायर रखने के लिए गांधी इस श्लोक को अधूरा ही पढ़ता था .

“”अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l”
(अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और धर्म रक्षार्थ हिंसा उससे श्रेष्ठ है)
 
Ahimsa Paramo Dharma Dharma himsa tathaiva cha,, 
(Non-violence is the ultimate dharma. So too is violence in service of Dharma).
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भारत में अहिंसा के पुजारी का ढोंग करने वाले महात्मा गाँधी ने हिन्दुओ की सभा में हमेंशा यही श्लोक पढते थे लेकिन हिन्दुओ को कायर रखने के लिए गांधी इस श्लोक को अधूरा ही पढ़ता था जिससे हिन्दुओ का धार्मिक खून उबल न पड़े. इसमें कोई शंशय नहीं की अहिंसा बहुत ही स्वीकार्य और महान सोच है परन्तु उसी के साथ हिन्दुओ / सनातनियो को अपने धर्म की रक्षा (राष्ट्र धर्म,मानवता, प्रकृति, कर्त्तव्य रक्षा, समाज रक्षा, गृहस्थ रक्षा यानी जितने धार्मिक कर्तव्य हैं ) के आड़े आने वाली हर बाधा की समाप्त करने के लिए किया गया आवश्यक  हिंसा उतना ही श्रेष्ठ है. अपने बंधू-बान्धवो की रक्षा राष्ट्र रक्षा का एक भाग जिसमे यदि हिंसा आवश्यक है तो करना श्रेष्ठ है.
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ध्यान रहे ये श्लोक तब लिखे गए थे जब अब्रहमिक धर्म (ईसाई और इस्लाम) इस विश्व में आये ही नहीं थे, लेकिन सनातन धर्म इस जगत में कब से किसी को अंदाज़ा नहीं है और धर्म के लिए हिंसा का अभिप्राय सनातन धर्म के रक्षार्थ लिखा गया जिसमे एक तुलसी की भी पूजा की जाती है और दुष्कर्मो के लिए अनिवार्य मृत्यु का विधान है जिससे की समाज की भयमुक्त किया जा सके.
 
भारत में हमारी हिंदू विरोधी सरकारे भी हिन्दुओ को आधा ही श्लोक बताने की शौकीन हैं..कारन हिन्दुओ का शोषण जरी रखा जा सके.

अहिंसा परमों धर्मा के बाद सबसे ज्यादा गलत व्याख्या वाला श्लोक है वसुधैव कुटुम्बकम

ये श्लोक महाउपनिषद की एक कहानी का है |

एक ग्राम में परस्पर मित्र चार युवा रहते थे। उनकी मित्रता बहुत गहरी थी और वे यथासंभव एक-दूसरे के साथ बने रहते थे। उनमें से एक बुद्धिमान था किन्तु संयोग से अन्य तीन की भांति विद्याध्ययन नहीं कर सका। अन्य तीनों ने विभिन्न कलाओं में दक्षता अर्जित कर ली। किन्तु अपने ज्ञान का उपयोग कब एवं किस प्रयोजन के लिए यह समझने की सहज बुद्धि उनमें नहीं थी।

एक बार उन मित्रों के मन में विचार आया कि अर्जित विद्या का उपयोग तो गांव में हो नहीं सकता, इसलिए क्यों न देश-परदेश जाकर उसके माध्यम से धनोपार्जन किया जाए। चूंकि चौथे मित्र ने विद्या अर्जित नहीं की थी इसलिए उनमें से एक बोला, “हम तीन चलते हैं; इस विद्याहीन को साथ ले जाना बेकार है। हम धन कमाएं और उसका एक हिस्सा इसे भी दें यह ठीक नहीं होगा।”

दूसरे ने सहमति जताते हुए चौथे से कहा, “मित्र, तुम विद्याबल से धन कमा नहीं सकते इसलिए तुम साथ मत चलो और यहीं रहो।”

तीसरा उदार विचारों वाला था। उसने कहा, “हम चारों बाल्यावस्था से घनिष्ठ मित्र रहे हैं। संयोग से यह विद्याध्ययन नहीं कर सका तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम इसे छोड़ दें। धन-संपदा की सार्थक उपयोगिता इसी में है कि उसका उपभोग औरों के साथ मिल-बांटकर किया जाये। अतः हमारा यह मित्र भी साथ चलेगा।”

अयं निजः परो वैति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

अर्थ – यह अपना है या पराया है ऐसा आकलन छोटे दिल वालों का होता है। उदार चरित्र वालों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही उनका कुटुम्ब होती है।

इस श्लोक का निहितार्थ यह है: अमुक तो अपना व्यक्ति है इसलिए उसकी सहायता करनी चाहिए यह धारणा संकीर्ण मानसिकता वालों की होती है। उदात्त वृत्ति वाले तो समाज के सभी सदस्यों के प्रति परोपकार भावना रखते हैं उन्हे परिवार ही मानते है और सामर्थ्य होने पर सभी की मदद करते हैं।

ध्यान दें कि कथा में एक उदार मित्र अपने दो अपेक्षया अनुदार मित्रों के प्रति “वसुधैव कुटुम्बकम्” की बात कहता है।

ये बात आपस के मित्रो के बीच की है , न की जियो पॉलिटिक्स की
वसुधैव कुटुम्बकम् , का मतलब ये बिलकुल नहीं होता , की दूसरी सभ्यता के लोगो को अपने परिवार का मान लिया जाय और अपने देश मे भर लिया जाय

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