शिवसेना नेता और राज्यसभा सांसद संजय राउत एक नया विवाद खड़ा करने की कोशिश में हैं। तमाम हथकंडे अपनाने के बाद भी जब शिवसेना (यूबीटी) को सफलता नहीं मिली, तो अब मामले को मराठी वर्सेज हिंदी की तरफ मोड़ने की कोशिश हो रही है। इसी कड़ी में शुक्रवार (27 जून 2025) को संजय राउत ने एक ट्वीट किया जिसमें उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की तस्वीर है।
संजय की पोस्ट में लिखा है, “जय महाराष्ट्र! ‘There will be a single and united march against compulsory Hindi in Maharashtra schools. Thackeray is the brand!’”
इस पोस्ट को देखकर लगता है कि यह सिर्फ भाषा के मुद्दे पर नहीं, बल्कि राजनीतिक फायदे के लिए उठाया गया कदम है।
राज और उद्धव का मिलन: बहाना या सचमुच का मराठी अस्मिता का सवाल?
संजय राउत का यह ट्वीट दिखाता है कि उद्धव ठाकरे (शिवसेना-UBT) और राज ठाकरे (एमएनएस) एक साथ आ रहे हैं। दोनों ठाकरे भाई, जो पहले एक-दूसरे से दूर थे, अब मराठी अस्मिता और हिंदी के खिलाफ एक मोर्चे पर खड़े हैं। राउत का कहना है कि 5 जुलाई 2025 को महाराष्ट्र में स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने के खिलाफ एक संयुक्त मार्च निकाला जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सचमुच मराठी भाषा की रक्षा के लिए है या फिर अपनी सियासी जमीन बचाने की कोशिश?
पिछले कुछ सालों में एमएनएस और शिवसेना दोनों की लोकप्रियता में कमी आई है, खासकर 2024 के विधानसभा चुनाव में एमएनएस का सूपड़ा साफ हो गया था। ऐसे में यह मिलन राजनीतिक फायदा उठाने का एक तरीका लगता है।
संजय राउत और उद्धव सेना झूठे दावों के साथ फिर से भाषा का झगड़ा खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें वे कह रहे हैं कि ‘हिंदी को अनिवार्य किया जा रहा है’। आइए जानें कि ऐसा क्यों नहीं है और नई शिक्षा नीति (NEP) क्या कहती है।
सच यह है कि हिंदी को कहीं भी जबरदस्ती लागू नहीं किया जा रहा। नई शिक्षा नीति 2020 में तीन भाषाओं का फॉर्मूला है, जिसमें मराठी, अंग्रेजी और एक तीसरी भाषा शामिल है। यह तीसरी भाषा छात्र अपनी मर्जी से चुन सकते हैं – हिंदी, संस्कृत, उर्दू या कोई और। स्कूलों में हिंदी इसलिए पढ़ाई जाती है क्योंकि यह पसंद की जाती है, शिक्षक आसानी से मिल जाते हैं, और बच्चों को यह भाषा पहले से थोड़ी-बहुत आती है। लेकिन अगर कोई स्कूल या माँ-बाप चाहें, तो दूसरी भाषा भी चुन सकते हैं।
नई शिक्षा नीति (NEP) कहती है कि शुरुआती कक्षा (कम से कम 5वीं तक और अगर हो सके तो 8वीं तक) में पढ़ाई मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा में होनी चाहिए। इसका मतलब साफ है – कोई भी भाषा थोपी नहीं जा रही।
महाराष्ट्र सरकार ने 2025 तक 80% शिक्षकों को नई शिक्षा पद्धति के लिए प्रशिक्षित करने की योजना बनाई है, लेकिन कहीं भी यह नहीं कहा गया कि हिंदी पढ़ना जरूरी है। अगर कोई स्कूल हिंदी नहीं पढ़ाना चाहता, तो वह दूसरी भाषा चुन सकता है। फिर भी संजय राउत और उद्धव ठाकरे की शिवसेना-UBT इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है, ताकि लोगों की भावनाएँ भड़कें और उन्हें सियासी फायदा मिले।
राजनीतिक फायदा और भावनाओं का खेल
संजय राउत और उद्धव ठाकरे की शिवसेना-UBT इस मुद्दे को बढ़ाकर मराठी लोगों की भावनाओं को भड़का रही है। पिछले कुछ सालों में मुंबई में मराठी वोट बैंक कमजोर हुआ है और बीएमसी जैसे अहम पदों से शिवसेना का कब्जा छूट गया है। ऐसे में हिंदी विरोध का नारा फिर से उनकी सियासी जमीन तैयार कर सकता है। वहीं राज ठाकरे, जिनकी पार्टी चुनावों में पिछड़ गई, वो भी इस मौके को भुनाना चाहते हैं। उनकी कोशिश है कि मराठी अस्मिता का मुद्दा उठाकर वे फिर से लोगों के बीच अपनी पहचान बनाएँ। लेकिन सच यह है कि यह सब राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित है, न कि मराठी भाषा की चिंता से।
राज ठाकरे और हिंदी-उत्तर भारतीय विरोध का इतिहास
राज ठाकरे की राजनीति का इतिहास हिंदी और उत्तर भारतीयों के खिलाफ रुख से भरा पड़ा है। 2006 में जब उन्होंने शिवसेना से अलग होकर एमएनएस बनाई, तो उनका नारा था ‘मराठी मानुस’। उन्होंने मुंबई में उत्तर भारतीयों और बिहारियों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन भी कराए, जिसकी वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 2008 में एक ट्रेन हादसे के बाद हिंदी मीडिया की कवरेज को लेकर हिंसा भड़की थी।
राज का कहना था कि बाहरी लोग महाराष्ट्र की नौकरियाँ छीन रहे हैं। बाद में 2020 में उन्होंने अपनी पार्टी का झंडा भगवा कर हिंदुत्व की ओर रुख किया, लेकिन मराठी अस्मिता का मुद्दा हमेशा उनके एजेंडे में रहा। अब हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य करने का विरोध करके वे फिर से पुरानी रणनीति पर लौट रहे हैं।
बता दें कि पिछले दशकों में ठाकरे परिवार ने कई बार भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर सियासत की है। उदाहरण के लिए, मुंबई में 30 साल तक सत्ता में रहते हुए शिवसेना ने मराठी माणस के लिए कुछ खास नहीं किया। चॉल में रहने वाले मराठी लोगों को 2 घंटे पानी मिलता था, जबकि बाहरी लोगों के टावरों में 24 घंटे सुविधा थी। अब जब सत्ता हाथ से निकल रही है, तो उन्हें मराठी याद आ रही है। यह दोहरा चेहरा साफ दिखता है।
हिंदी को अनिवार्य करने का दावा गलत है। NEP 2020 में छात्रों और अभिभावकों को भाषा चुनने की आजादी है। संजय राउत का यह पोस्ट और ठाकरे भाइयों का मिलन महज एक राजनीतिक स्टंट है, जो मराठी अस्मिता के नाम पर वोट बटोरने की कोशिश है। हमें इस खेल को समझना होगा और भावनाओं में बहकर फैसले लेने से बचना होगा। महाराष्ट्र की तरक्की तभी होगी जब हम एकता और शिक्षा पर ध्यान दें, न कि भाषा के नाम पर लड़ाई लड़ें।