Saturday, September 7, 2024
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ब्रेकिंग न्यूज:19 दिसंबर को कांग्रेस की बड़ी बैठक,राहुल गांधी पर बड़ा फैसला, कमलनाथ की दिल्ली रवानगी,मध्यप्रदेश से बाय बाय

राहुल गांधी आने वाले लोकसभा चुनाव तक पद लेना नही चाहते,अपने चहेते वेणुगोपाल को तब तक अध्यक्ष रखना चाहते हैं लेकिन दिग्गजों ने स्पष्ट कर दिया सिर्फ राहुल गांधी ही ,नही तो चलने दो जैसा है।
कमलनाथ को दिल्ली ले जाने की तैयारी कर ली गयी है,अहमद पटेल की मौत के बाद हुए वैक्यूम को कुछ हद तक भरने का प्रयास है,हालांकि अहमद पटेल जैसी विश्वसनीयता किसी को हासिल नही।

19 दिसंबर की मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है जिसमें नेता साफ-साफ आगे के रोडमैप पर चर्चा हो सकती है। ऐसी चर्चा भी है कि जनवरी के दूसरे हफ्ते में कांग्रेस में नए अध्यक्ष के लिए चुनाव हो
सकता है।

19 दिसंबर को आपात बैठक

कांग्रेस के अंदर हलचल तेज हो गई है। सोनिया गांधी ने 19 दिसंबर को आपात मीटिंग बुलाई है जिसमें असंतुष्ट नेताओं की मांगों को सुना जाएगा। दरअसल पार्टी के अंदर असंतुष्ट नेताओं का दायरा बढ़ने से फूट तक का खतरा पैदा होने लगा है, जिसके बाद अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने यह मीटिंग बुलाई है। पिछले दिनों पार्टी के 23 सीनियर नेताओं ने पार्टी के हालात पर नाराजगी जताते हुए एक चिट्टी सोनिया गांधी को लिखी थी जिसके बाद से संकट लगातार गहराता जा रहा है। इस गुट के नेताओं का कहना है कि अब तुरंत अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो पार्टी के अंदर बड़ा बिखराव होना तय है।

सूत्रों के अनुसार 19 दिसंबर की मीटिंग बहुत अहम होने वाली है जिसमें नेता साफ-साफ आगे के रोडमैप के बारे में बात कर सकते हैं। ऐसी चर्चा है कि जनवरी के दूसरे हफ्ते में पार्टी नए अध्यक्ष का चुनाव कर सकती है। इसके लिए प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। सूत्रों के अनुसार 23 नेताओं के समर्थन में पार्टी के कुछ और नेता आ गए हैं और वे सोनिया गांधी से तुरंत हस्तक्षेप करने की मांग कर रहे हैं। पार्टी के एक सीनियर नेता ने एनबीटी से कहा कि पार्टी के अंदर शीर्ष स्तर पर नेतृत्व संकट का असर अब राज्यों तक पड़ने लगा है और फिर से पुराने विवाद सामने आने लगे हैं। राजस्थान में भी एक बार फिर सियासी संकट नए सिरे से उभरने की खबरें आने लगी हैं।

सिर्फ राहुल पर हो सकती है सहमति
सूत्रों के अनुसार सीनियर नेताओं ने यह भी साफ संदेश दे दिया है कि नेतृत्व के लिए खुद राहुल गांधी पूरी सक्रियता से सामने आते हैं तो वह स्वीकार्य होगा, लेकिन अगर वह अपनी ओर से किसी डमी उम्मीदवार को अध्यक्ष पद के लिए आगे करते हैं तो वह स्वीकार्य नहीं होगा और ऐसी परिस्थिति में पार्टी टूट की हालत तक जा सकती है। दरअसल ऐसी भी खबरें आईं थीं कि राहुल खुद अध्यक्ष पद न लेकर अपने किसी पसंदीदा-करीबी नेता को इस पद पर बैठा सकते हैं। अंसतुष्ट नेताओं ने चेताया कि अगर ऐसा होता है तो वे इसे चुनौती देंगे। इसके अलावा राहुल की टीम को लेकर भी विवाद है।

पार्टी में के बड़े नेताओं खुले तौर पर खींचतान

कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भी स्थिति से बेचैन हैं। 23 वरिष्ठ नेताओं के एक समूह की ओर से पिछले दिनों कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी गई थी। बिहार में सरकार बनाने से विपक्षी महागठबंधन के चूक जाने के बाद इस समूह की ओर से फिर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कपिल सिब्बल जैसे नेता खुलकर नेतृत्व की कमजोरी पर सवाल उठा रहे हैं। दिक्कत यह है कि जिस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हर स्तर पर नेतृत्व चुनने को रामबाण इलाज बताया जा रहा है, उस पर इस समूह के लोग भी पूरी तरह खरे नहीं उतरते। सिब्बल जैसे नेता सरकार रहने पर केंद्रीय मंत्री और न रहने पर सुप्रीम कोर्ट की वकालत के तय ढर्रे पर जिंदगी जीते हैं। संगठन खड़ा करने या उसमें योगदान देने की उनकी कोई भूमिका नजर नहीं आती। लेकिन क्या ऐसी कोई योजना है भी जिसके तहत ऐसे नेताओं के सामने स्पष्ट कार्यभार पेश किया जाए?

युवाओं को मिले ज्यादा तरजीह

कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अब युवाओं पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। कांग्रेस में अकेला गांधी परिवार है जिस पर कार्यकर्ता शर्त लगा सकते हैं कि वह महात्मा गांधी की हत्या करने वाली विचारधारा के सामने समर्पण नहीं करेगा। तमाम कमजोरियों के बावजूद कांग्रेस अब भी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है जो मानते हैं कि राहुल गांधी इतिहास की पुकार हैं। लेकिन क्या किसी नए आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम और जमीनी गतिशीलता के बगैर इस पुकार को एक ठोस जनाधार में बदला जा सकता है? बिल्कुल उसे जनाधार में बदला जा सकता है मगर केवल युवा नेताओं को तरजीह देकर ही कांग्रेस अपनी गाड़ी को रफ्तार दे सकती है।

संगठन में फेरबदल का दिख सकता है बड़ा असर

किसी भी संगठन में कार्यकर्ताओं के जूझने की दो वजहें होती हैं। एक तो विचारधारा, दूसरी स्वार्थ। केंद्र और ज्यादातर राज्यों में सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस में कार्यकर्ताओं का निजी स्वार्थ पूरा करने का ज्यादा सामर्थ्य नहीं बचा है और जो कार्यकर्ता विचारधारा की वजह से हैं, उनके सामने भी स्थिति अमूर्त है। जिस नई आर्थिक नीति और उदारीकरण की नीति को कभी कांग्रेस ने शुरू किया था, मौजूदा सरकार उसे ही बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा रही है। कांग्रेस की ओर से ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ को बढ़ावा देने की चाहे जितनी आलोचना की जाए, मूल नीतियों की न तो कोई समीक्षा की गई है और न उन्हें उलटने का कोई प्रस्ताव ही है। यह सच है कि उसने संगठन में दलित और पिछड़ी जातियों को हाल के दिनों में ज्यादा महत्व दिया है, लेकिन डॉ. आंबेडकर के ‘जाति उच्छेद’ के कार्यक्रम को अपनाने या निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसी मांग करने का साहस उसके पास नहीं है।

गांधी परिवार की निर्भरता

कांग्रेस का गांधी परिवार के बगैर गुजारा नहीं हो सकता, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि परिवार ही यह तय न कर पाए कि पार्टी की कमान किस सदस्य को सौंपी जाए? क्या इस असमंजस का कारण यह है कि पार्टी नेताओं का एक गुट राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं? जो भी हो, यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सोनिया गांधी उस वक्त का इंतजार कर रही हैं जब पार्टी के सभी प्रमुख नेता एक स्वर से यह मांग करने लगें कि राहुल गांधी के फिर पार्टी अध्यक्ष बने बगैर कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं। इसीलिये लम्बे समय से ये अनिर्णय की स्थितियां बनी हुई रखी जा रही हैं, लेकिन कब तक? मुश्किल यह भी है कि ऐसा होना आसान नहीं, क्योंकि पार्टी की गुटबाजी सबके सामने आ गई है।

कमलनाथ बने मध्यस्थ?
सूत्रों के अनुसार असंतुष्ट नेता और गांधी परिवार के बीच खाई को कम करने और पार्टी को मौजूदा संकट से निकालने के लिए मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम कमलनाथ मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं। कमलनाथ के ही बीच में आने के बाद 19 दिसंबर की मीटिंग तय हुई है। पार्टी के अंदर अहमद पटेल के असमय निधन के बाद उस पद को भरने वाले संभावित नाम में भी कमलनाथ का नाम आगे चल रहा है।

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