Saturday, September 7, 2024
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3 वास्तविक हीरो,बंगलादेश आज भी जिनको पूजता है, इंदिरा गांधी से कहते थे,स्वीटी तुम अपना काम करो हम अपना

1971 की जंग में पाकिस्तान को हराने और नया मुल्क बांग्लादेश बनाने का पूरा श्रेय सिर्फ एक ही शख्स को जाता है। वो हैं फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ। ये भारतीय सेना के इस लीडर की ही ताकत थी, जिसने जंग खत्म होने के बाद पाकिस्तान के 90 हजार सैनिकों को बंदी बना लिया था। उनकी शरारतों और मजाक के कई किस्से आज भी बेहद मशहूर हैं। वो भारत के एक ऐसे आर्मी चीफ थे, जो उस समय की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की बात काटने से भी नहीं डरते थे। इतना ही नहीं, वो इंदिरा गांधी को स्वीटी तक कह डालते थे।
एक मोटरसाइकिल के बदले ले लिया आधा पाकिस्तान…


– सैम मानेकशॉ का पाकिस्तानी राष्ट्रपति से भी जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर हैं। दरअसल, मानेकशॉ और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान एक साथ फौज में थे और दोस्त हुआ करते थे।
– उस समय मानेकशॉ के पास एक यूएस मेड मोटरसाइकिल हुआ करती थी। देश का बंटवारा हुआ तो याह्या खान पाकिस्तान फौज में चले गए। वहीं, मानेकशॉ भारत में रहे।
– लेकिन याह्या खान ने जाते-जाते मानेकशॉ से ये अमेरिकी मोटरसाइकिल 1000 रुपए में खरीद ली। लेकिन पैसे नहीं चुकाए। समय बीतता गया। मानेकशॉ भारत के आर्मी चीफ बने तो पाकिस्तान में याह्या खान ने सरकार का तख्तापलट कर राष्ट्रपति बन गए।
– 1971 की जंग में पाकिस्तान के सरेंडर करने के बाद मानेकशॉ ने कहा था कि याह्या ने आधे देश के बदले में उनकी मोटरसाइकिल का दाम चुका दिया।
इंदिरा गांधी का विरोध करने में सबसे आगे
– फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने एक बार इंटरव्यू में बताया था कि इंदिरा गांधी पूर्वी पाकिस्तान के हालात को लेकर काफी परेशान थीं। सबसे बड़ी समस्या पूर्वी पाकिस्तान से भारत आ रहे शरणार्थी थे। मानेकशॉ ने बताया कि 27 अप्रैल को इंदिरा ने आपात बैठक बुलाई और लोगों को अपनी परेशान बताई। इस मीटिंग में मानेकशॉ भी बैठे थे।
– इंदिरा ने पूर्वी पाकिस्तान में इंडियन आर्मी को दखल देने की बात कही तो, मानेकशॉ ने तुरंत इसका विरोध कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि इसके लिए उनकी आर्मी तैयार नहीं है। जंग हुई तो देश को बहुत नुकसान होगा। हमें तैयारी का मौका दें, जब जंग करनी होगी, वह बता देंगे। मानेकशॉ के ऐसे तीखे तेवर देखकर इंदिरा गांधी चुप हो गईं।

इंदिरा गांधी को स्वीटी कहने की हिमाकत
– मानेकशॉ और इंदिरा गांधी से जुड़े कई दिलचस्प किस्से कई किताबों में शामिल किए गए हैं। उन्हीं में से एक किस्सा स्वीटी भी है। एक तरफ जब इंदिरा गांधी के सामने लोग कुछ भी कहने से डरते थे, आर्मी चीफ मानेकशॉ उन्हें स्वीटी कहकर बुलाते थे।
– 1971 में जंग के लिए जब एक बार फिर इंदिरा ने अपने आर्मी चीफ से पूछा तो मानेकशॉ ने कहा कि मैं हमेशा तैयार हूं स्वीटी। इंदिरा गांधी जानती थीं कि मानेकशॉ जैसे लीडर की दम पर ही वो पूर्वी पाकिस्तान में जंग जीत सकती हैं। इसलिए वो उनके सारे नखरे सहती थीं।
जब भारत में उड़ी तख्तापलट की अफवाह
– इंदिरा गांधी अपनी लीडरशिप, पॉलिटिक्स और ब्यूरोक्रेसी के कंट्रोल को लेकर हमेशा सतर्क रहती थीं। एक बार अफवाह फैली कि मानेकशॉ आर्मी की मदद से सरकार का तख्तापलट करने की फिराक में हैं। इससे इंदिरा काफी डर गई थीं।
– उन्होंने मानेकशॉ को मीटिंग पर बुलाया और इस बारे में सवाल किए तो आर्मी चीफ ने कड़क अंदाज में इंदिरा को जवाब दिया। उन्होंने कहा- मेरी और आपकी दोनों की नाक बड़ी लंबी है। मगर मैं दूसरे के काम में अपनी नाक नहीं अड़ाता। इसलिए आप भी मेरे काम में नाक न डालें।

मानेकशॉ ने पाक के कर दिए थे दो टुकड़े, इंदिरा को मैडम कहने से किया था इनकार

मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था. उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आया था.
सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ भारतीय सेना के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में भारत ने सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त किया था जिसके परिणाम स्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ था. मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था. उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आया था. मानेकशॉ की शुरुआती शिक्षा अमृतसर में हुई थी. बाद में वह नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए. वह देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच (1932) के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे. वहां से वह कमीशन प्राप्ति के बाद 1934 में भारतीय सेना में भर्ती हुए.
1973 में फील्ड मार्शल का सम्मान मिला
1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए सैम की मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई. दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को शादी में बदल गई. 1969 को उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया गया और 1973 में फील्ड मार्शल का सम्मान प्रदान किया गया. 1973 में सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वह तमिलनाडु में बस गए थे. वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी और वह कोमा में चले गए. उनकी मृत्यु वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल के आईसीयू में 27 जून 2008 को हुई थी.
पहली बार दूसरे विश्व युद्ध में जीत का स्वाद चखा
17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध में जंग का स्वाद चखा. 4-12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वह गम्भीर रूप से घायल हो गए थे. स्वस्थ होने पर मानेकशॉ पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुंचे, यहां वह भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए, द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चाइना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्ध बंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया.

भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 में महत्वपूर्ण भूमिका
मानेकशॉ 1946 में फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, भारत के विभाजन के बाद 1947-48 की भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी थे. गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था. तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया.
15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए
7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमार मंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया, उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया, दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई, सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई और बांग्लादेश का निर्माण हुआ, उनके देश प्रेम और देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण और 1 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से अलंकृत किया गया. चार दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘मैडम’ कहने से इनकार
मानेकशॉ खुलकर अपनी बात कहने वालों में से थे. उन्होंने एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘मैडम’ कहने से इनकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि यह संबोधन ‘एक खास वर्ग’ के लिए होता है. मानेकशॉ ने कहा कि वह उन्हें प्रधानमंत्री ही कहेगे.

 1971 में अगर भारतीय सेना, पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे लोगों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ खड़ी न होती तो आज बांग्लादेश आज़ाद न होता। आज भी बांग्लादेश में भारतीय सेना के अफसरों को सम्मान मिलता है। पाकिस्तान पर भारत की जीत सुनिश्चित करने में भारतीय सेना के जनरल सैम मानेक शॉ, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और जनरल जेएफआर जैकब ने बड़ी भूमिका निभाई। आइए आपको इन तीनों से मिलवाते हैं:
सैम मानेक शॉ
पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते तनाव और भारत में शरणार्थियों की संख्या देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मार्च, 1971 में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई करना चाहती थीं लेकिन थलसेना प्रमुख मानेक शॉ ने इस पर असहमति जताई थी और 6 महीने का समय मांगा था। मानेक शॉ का एक किस्सा काफी चर्चा में था कि कैसे युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा था कि क्या आप मेरा तख्ता पलटने वाले हैं। इस सवाल पर मानेक शॉ ने अपने अंदाज में कहा, ‘क्या आपको नहीं लगता कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूं, क्योंकि आप की तरह ही मेरी नाक भी लंबी है लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता। सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं और यही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूं।’

जैकब फ़र्ज राफ़ेल जैकब जिन्हें मुख्यतः उनके नाम के प्रथम अक्षरों जेएफआर के नाम से ही जाना जाता है, भारत के पूर्व सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल थे. वो 1971 के भारत-पाक युद्ध में विजय और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के लिए जाने जाते हैं. उनका जन्म साल 1923 में हुआ था, उनकी मृत्यु 13 जनवरी 2016 हुई थी. जैकब को बांग्लादेश में भी काफी सम्मान मिलता है.

मेजर जनरल जैकब को 1971 में भारतीय सेना की पूर्वी कमान के चीफ ऑफ स्टाफ थे. जैकब को भारत ही नहीं बांग्लादेश में भी अनेक सम्मानों से नवाज़ा गया. सन् 1971 के युद्ध में जैकब ने ‘वॉर ऑफ मूवमेंट’ की रणनीति बनाई थी. इसके तहत भारतीय सेना को पाकिस्तानी सेना के कब्जे वाले शहरों को छोड़कर वैकल्पिक रास्तों से भेजा गया. 16 दिसंबर को फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने लेफ्टिनेंट जनरल जैकब को ढाका जाकर पाकिस्तान से आत्म समर्पण कराने की तैयारी करने का आदेश दिया.
इसके बाद जैकब सरेंडर दस्तावेजों के के साथ ढाका की ओर निकल गए. उस समय तक नियाज़ी के 26 हजार 400 सैनिक ढाका में मौजूद थे, जबकि भारत के लगभग 3000 सैनिक ढाका को घेरे खड़े थे. हालांकि, पाकिस्तानी सेना के हौसले पस्त हो चुके थे. जैकब ढाका पहुंचे और वहां पाकिस्तानी जनरल एएके नियाज़ी से कहा कि अपनी फौज को आत्मसमर्पण का आदेश दें.

जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर के लिए आधे घंटे का समय दिया. उन्होंने यह साफ कर दिया था कि अगर दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए गए तो नियाज़ी और उनके परिवारवालों की सुरक्षा करेंगे. इसके बाद ढाका के रेसकोर्स मैदान में जनरल नियाज़ी ने मेजर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे और बांग्लादेश को आज़ादी मिल गई थी.

जब भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को आज़ाद कराने के लिए ऑपरेशन शुरू किया, तो उसका नेतृत्व जगजीत सिंह ने किया। इस ऑपरेशन के शुरू होते ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया। भारत उन पर किसी तरह दबाव बनाना चाहता था, ताकि वे पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे लोगों पर हो रहे अत्याचारों को खत्म कर, उन्हें स्वतंत्रता दें।
हालांकि, भारतीय सेना को ये भी आदेश थे कि किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के साथ लड़ाई की नौबत नहीं आनी चाहिए। पर पाकिस्तान ने उनके जवाब में सिर्फ़ आक्रमण किया। ऐसे में, जगजीत सिंह ने स्थिति को सम्भालने के लिए एक रणनीति बनाई। उन्होंने सेना को छोटी-छोटी टुकड़ियों में बाँट कर अलग-अलग रास्तों से पाकिस्तान की सभी महत्वपूर्ण पोस्ट पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया। उनकी रणनीति इतनी मजबूत थी कि चंद दिनों में ही भारतीय सेना ढाका (अब बांग्लादेश की राजधानी) तक पहुँच गयी।
अपनी सेना की अत्यधिक क्षति होते देखकर और भारतीय सेना के पाकिस्तान में बढ़ते क़दमों को देख, पाकिस्तान के तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्लाह ख़ान नियाज़ी ने अपने कदम पीछे हटाने का फ़ैसला लिया।
नियाज़ी ने जगजीत सिंह को एक वायरलेस सन्देश भेजा कि पाकिस्तानी सेना आत्म-समर्पण करने के लिए तैयार है। भारतीय सेना अपनी गतिविधियाँ रोक दे। इसके बाद जगजीत सिंह ने सन्देश भेजा कि यदि वे ऐसा करना चाहते हैं, तो भारतीय सेना भी उनकी सरहद छोड़ देगी।
इसके बाद तुरंत दिल्ली से समझौते के दस्तावेज़ भिजवाये गये और जगजीत सिंह ने इस दस्तावेज़ में यह भी लिखवाया कि अगर कोई पाकिस्तानी अफ़सर या सैनिक उनके सामने आत्म-समर्पण करेगा, तो वे जेनेवा समझौते के अनुसार उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेंगें। उन्होंने यह भी कहा,

“भारतीय सेना रेसकोर्स की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेगी और आत्म-समर्पण वहीं होगा, ताकि बांग्लादेश के लोगों को पता चले कि वो आज़ाद हो गए हैं। मैं किसी कमरे में नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच में आत्म-समर्पण स्वीकार करूँगा।”

जब नियाज़ी का सरेंडर लेने के लिए ढाका जाने की बात आई, तो वो अपने साथ अपनी पत्नी भगवंत कौर को भी ले गए। हालांकि, उनके इस फ़ैसले की कुछ साथियों ने आलोचना भी की। पर इस निर्णय के पीछे की वजह लोगों को बाद में समझ में आई। दरअसल, इस पूरे वाकये में न जाने कितनी ही महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार हुआ था। इसलिए, वे चाहते थे कि एक महिला इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी बने और पूरी दुनिया को सन्देश मिले कि हम मानवीय मूल्यों का सम्मान करते हैं और एक महिला को वहाँ ले जाना बताता है कि हम महिलाओं का सम्मान करते हैं।
एडमिरल कृष्णन ने अपनी आत्मकथा ‘ए सेलर्स स्टोरी’ में लिखा, ”ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक छोटी-सी मेज़ और दो कुर्सियाँ रखी गई थीं, जिन पर जनरल अरोड़ा और जनरल नियाज़ी बैठे थे। मैं, एयर मार्शल देवान जनरल सगत सिंह और जनरल जैकब पीछे खड़े थे। आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ की छह प्रतियाँ थीं, जिन्हें मोटे सफ़ेद कागज़ पर टाइप किया गया था।”

समर्पण के कागज़ात पर नियाज़ी ने पहले अपने पूरे हस्ताक्षर नहीं किये और सिर्फ़ ‘एएके निया’ लिखा। पर जगजीत सिंह ने उनसे पूरे हस्ताक्षर करने के लिए कहा और जैसे ही, नियाज़ी ने यह किया, बांग्लादेश आज़ाद हो गया। यह करते हुए, जनरल नियाज़ी की आँखों में आंसू आ गये थे।
नियाज़ी ने अपने 93,000 सैनिकों के साथ समर्पण किया और इस तरह 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश का जन्म हुआ। आज इतने सालों बाद भी, बांग्लादेश के लोग जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा का नाम नहीं भूले हैं। उस समय, बांग्लादेश के विदेश मंत्री, मुर्शिद ख़ान ने भी कहा था कि जगजीत सिंह को बांग्लादेश के इतिहास में हमेशा याद रखा जायेगा।

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