प्रियंका गाँधी वाड्रा के पहली बार सांसद बनने के कुछ दिनों बाद ही उनके शौहर रॉबर्ट वाड्रा को ‘हाजी अली ने बुलाया’। यह हम नहीं कह रहे खुद सोनिया गाँधी के दामाद और राहुल गाँधी के जीजा ने मुंबई के दरगाह पर मत्था टेकने के बाद मुनादी की है।
इस दौरान वाड्रा ने मस्जिदों के सर्वे पर भी चिंता जताई। सेकुलरिज्म का पाठ भी पढ़ाया। यह भारतीय राजनीति की विडंबना ही कही जा सकती है कि सेकुलरिज्म का पाठ कॉन्ग्रेस के उस शीर्ष परिवार का एक सदस्य आम भारतीयों को पढ़ा रहा, जिसका कोई भी सदस्य अयोध्या राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के बाद दर्शन करने तक नहीं गया है।
अयोध्या का राम मंदिर केवल एक मंदिर नहीं है। यह भारत के उस गौरव की पुर्नस्थापना का प्रतीक है जिसे इस्लामी आक्रांताओं ने कुचल दिया था। लेकिन यह उस परिवार को शायद ही समझ आए जिसकी जड़ें जवाहर लाल नेहरू से जुड़ी हो। ये नेहरू ही थे जो स्वतंत्र भारत में भी अयोध्या में भगवान की मूर्ति को बाहर निकलवाना चाहते थे।
शायद वाड्रा का सेक्युलरिज्म, धर्म से तो निरपेक्ष है, लेकिन मजहब से निरपेक्ष नहीं है। ऐसे में उन्हें दरगाह के लिए बुलावे आ रहे हैं लेकिन राम मंदिर जाने की उन्हें कोई इच्छा नहीं होती। ना ही उनकी पत्नी के परिजन यहाँ जा पाते हैं जबकि उन्हें राम मंदिर की कमिटी ने न्योता भी भेजा था।
सोचने वाली बात यह है कि अब तक रॉबर्ट वाड्रा भी राम मंदिर क्यों नहीं जा पाए हैं। माना जा सकता है कि गाँधी परिवार मुस्लिम वोटों को लेकर डरता होगा, जिस कारण से उसने न्योता ठुकरा दिया। लेकिन रॉबर्ट वाड्रा के साथ क्या समस्या यह अभी तक नहीं पता। रॉबर्ट तो सार्वजनिक जीवन वाले व्यक्ति में भी नहीं हैं।
वह चले जाते तो शायद गाँधी परिवार का कुछ फायदा हो जाता और रॉबर्ट वाड्रा की ‘धार्मिक यात्रा’ में एक स्थान और जुड़ जाता। शायद उन पर गाँधी परिवार का दबाव रहा हो। वह बात अलग है कि राम मंदिर का फैसला टलवाने के प्रयास में गाँधी परिवार के नियंत्रण वाली कॉन्ग्रेस के नेता कपिल सिब्बल सबसे आगे थे।
उन्होंने लगातार सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में बहस की थी। ऐसे में उनका सेक्युलर होने की सलाह देना कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ता। गाँधी परिवार से संबंध रखने वाले रॉबर्ट वाड्रा ने यह भी समझाया है कि हमें धर्म की राजनीति नहीं करनी चाहिए और दोनों को अलग रखना चाहिए। इस सलाह की पिछले लगभग 50 वर्षों से जरूरत कॉन्ग्रेस को सबसे अधिक है।
शाहबानो मामला हो या फिर प्लेसेस ऑफ़ वरशिप एक्ट और फिर 2013 का वक्फ कानून और अब वक्फ में संशोधन का विरोध, यह सभी ऐसे मामले हैं जब कॉन्ग्रेस मजहबी राजनीति करती है। हालाँकि, रॉबर्ट वाड्रा को इस मुद्दे पर सही भी कहा जा सकता है, क्योंकि कॉन्ग्रेस धर्म नहीं मजहब की राजनीति जरूर करती है।
आस्था निजी विषय है और ऐसा नहीं है कि गाँधी परिवार के नेता कभी मंदिर नहीं जाते हों। लेकिन राहुल गाँधी का दत्तात्रेय ब्राह्मण होना और उनका मंदिरों में जाना तभी नजर आता है, जब चुनाव निकट हों। विशेष कर उन राज्यों के चुनावो में जहाँ हिन्दू आबादी निर्णायक भूमिका में हो। गाँधी परिवार के लोग ऐसे समय मंदिर जाते हैं, त्रिपुंड लगाते हैं और गोत्र तक की चर्चा होती है।
उनकी पार्टी के सदस्य जनेऊ वाली फोटो लहराते हैं। हालाँकि, बाकी समय सेक्युलरिज्म की दुहाई देते हुए कहीं नहीं जाया जाता। आगे यह बात देखने वाली होगी कि रॉबर्ट वाड्रा की धार्मिक यात्रा में गाँधी परिवार शामिल होता है या नहीं और वह स्वयं राम मंदिर तक पहुँच पाते हैं या नहीं।
तो कुल मिलाकर बात ये है कि सेक्युलरिज्म की सलाह देने वाले वाड्रा सबसे पहले खुद इस नियम चलें, उसके बाद गाँधी परिवार को सिखाएँ। उसने यह कहें कि धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर बनना है, तो सही मायनों में बने। ऐसा ना हो कि धर्मनिरपेक्ष तो रहें लेकिन मजहब की बात आते ही सबसे आगे बचाव में खड़े हो जाएँ। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम लोग भक्त ही ठीक हैं।