Thursday, December 12, 2024
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राहुल गांधी कैसे बने GANDOS, गांडोस के दूसरे हिस्से को जानिये,पहला तो राहुल गांधी को कहा…..

कॉन्ग्रेस वालों ने मोदी और अडानी को जोड़ कर एक फोटो बनाई थी, जिसका नाम दिया था “मोडानी”। इसी तर्क के आधार पर उन्होंने गाँधी और सोरोस को मिला कर एक पोस्टर तैयार किया था। उन्होंने कहा कि यह राहुल गाँधी के कर्मों का फल है कि लोग पोस्टर पर लिखे शब्द का अलग-अलग मतलब निकाल रहे हैं।

 

कौन हैं जॉर्ज सोरोस, जिन्हें कई लीडर कहते हैं “पपेट मास्टर”

जॉर्ज सोरोस भारत में एक चर्चित “कीवर्ड” बने हुए हैं. भारतीय राजनीति की शब्दावली में दाखिल होने से पहले भी वह कई राजनेताओं के निशाने पर रहे हैं. एर्दोआन और ट्रंप इस सूची में हैं. हालांकि, सबसे बड़ा नाम है: विक्टर ओरबान.

Schweiz Davos | US-Investor George Soros

दुनिया के कई देशों के बाद अब भारतीय राजनीति में भी अरबपति जॉर्ज सोरोस का दाखिला हो चुका है. हाल ही में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को “देशद्रोही” करार देते हुए आरोप लगाया कि कांग्रेस, भारत को अस्थिर करने के सोरोस के कथित एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. बीजेपी का यह भी आरोप है कि कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी का एक ऐसे भारत विरोधी फाउंडेशन से नाता है, जिसे सोरोस फाउंडेशन से फंडिंग मिलती है.

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जवाब में कांग्रेस ने भी आरोप लगाया कि “अदाणी को बचाने के लिए बीजेपी और मोदी सरकार, जॉर्ज सोरोस के नाम पर स्वांग रच रही है.” मोदी सरकार पर “जॉर्ज सोरोस को पैसे देने” का आरोप लगाते हुए कांग्रेस ने पूछा है कि अगर “सोरोस नाम का आदमी भारत-विरोधी गतिविधियां कर रहा है, तो आप उसका धंधा-पानी भारत में बंद क्यों नहीं करवाते? सरकार सोरोस के सारे बिजनेस और फंडिंग पर रोक क्यों नहीं लगाती?”

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कौन हैं जॉर्ज सोरोस?

93 वर्षीय सोरोस का जन्म हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ था. यह नाजी दौर था और हंगरी भी नाजियों के कब्जे में था. ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ के मुताबिक, पहले इस परिवार का सरनेम श्वार्त्स था. लेकिन बुडापेस्ट में गहराती यहूदी-विरोधी भावना को देखते हुए जॉर्ज के पिता इवादार ने सरनेम बदलकर सोरोस कर लिया.

‘श्वार्त्स’ की तुलना में ‘सोरोस’ उपनाम से परिवार की यहूदी पहचान जाहिर नहीं होती थी. इवादार ने अपने परिवार को ईसाई बताकर फर्जी पहचान पत्र हासिल किए. इस तरह इवादार का परिवार होलोकॉस्ट से बचने में कामयाब रहा. साल 1947 में जॉर्ज 17 साल के थे, जब वह इंग्लैंड आ गए. यहां उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई की.

साल 1956 में सोरोस अमेरिकाचले गए. यहां उन्होंने वित्तीय बाजार में अपना नाम स्थापित किया, खूब कमाई की. वह हेज फंड के बड़े कारोबारी बन कर उभरे. हेज फंड, निजी निवेशकों के बीच एक सीमित साझेदारी है. इसमें कई लोगों या समूहों से फंड लेकर पेशेवर फंड मैनेजर उसका प्रबंधन करते हैं. वह अमेरिका में सबसे कामयाब निवेशकों में गिने जाते हैं.

जर्मनी के म्युनिख शहर में जॉर्ज सोरोस अपने बेटे एलेक्जेंडर सोरोस के साथ
सोरोस का जन्म हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ

क्या है ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशंस’

‘न्यू यॉर्क’ मैगजीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सन 1985 के आसपास सोरोस ने परोपकारी कामों में पैसा देना शुरू किया. उन्होंने बुडापेस्ट में एक फाउंडेशन शुरू किया, जिसका मकसद था “एक उदार और खुले समाज” से जुड़े लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना. इस फाउंडेशन ने तत्कालीन कम्युनिस्ट सत्ता के दौरान हंगरी में आलोचनाओं और असहमतियों के स्वरों को समर्थन दिया.

यही संस्था आगे चलकर ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशंस’ (ओएसएफ) का आधार बनी. शुरुआती दौर में इसका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से पूर्वी यूरोप और रूस था, जो कि तब सोवियत ब्लॉक का हिस्सा थे. ओएसएफ के अनुसार, इस दौर में फाउंडेशन जानकारी को पारदर्शी बनाने और लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहा था.

आने वाले दशकों में ओएसएफ का काफी विस्तार हुआ. ओएसएफ के अनुसार, आज वह दुनिया में ऐसे स्वतंत्र समूहों का सबसे बड़ा प्राइवेट फंडर है जो न्याय, लोकतांत्रिक शासन और मानवाधिकारों के लिए काम करते हैं. ‘ह्यूमन राइट्स फंडर्स नेटवर्क’ के मुताबिक, साल 2020 में ओएसएफफ मानवाधिकार से जुड़े संगठनों और लोगों को आर्थिक मदद देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा फंडर था.

हालांकि, समाचार एजेंसी एपी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 से इस फाउंडेशन ने अपने कई कार्यक्रम बंद कर दिए और कर्मचारियों की संख्या भी घटाई. इसके कारण मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे कई समूहों को आशंका थी कि उनकी फंडिंग प्रभावित हो सकती है. फाउंडेशन ने अपने ताजा बयान में आश्वासन दिया है कि वह दुनियाभर में मानवाधिकार अभियानों को फंड देना जारी रखेगा.

इस्तांबुल में एक कार्यक्रम के दौरान तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोआन
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन ने भी बड़े स्तर पर हुए नागरिक प्रदर्शनों में सोरोस की भूमिका का दावा किया

पहले भी कई राजनेताओं ने सोरोस पर आरोप लगाए हैं

भारत में दलगत राजनीति और आरोपों-प्रत्यारोपों से इतर देखें, तो सोरोस पर पहले भी कई राजनेताओं और राष्ट्राध्यक्षों ने गंभीर आरोप लगाए हैं. इनमें एक प्रमुख नाम है, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का. हंगरी, सोरोस की पैदाइश का देश है. ओरबान, जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा की राजनीति करते हैं, सोरोस के खिलाफ बड़ी मुहिम चलाते रहे हैं. बकौल ओरबान, सोरोस उस अंतरराष्ट्रीय साजिश के केंद्र में हैं, जिसका मकसद माइग्रेशन के माध्यम से हंगरी को तबाह करना है.

सिर्फ हंगरी ही नहीं, अमेरिकी समाचार वेबसाइट ‘बिजनेस इनसाइडर’ के शब्दों में कहें, तो “जॉर्ज सोरोस, दक्षिणपंथ के पसंदीदा टारगेटों में से एक हैं.” वेबसाइट ने अपनी एक खबर में 21 जनवरी 2017 को अमेरिका में हुई एक रैली का जिक्र किया. ट्रंप के पहले कार्यकाल में उनके पदभार संभालने के एक दिन बाद वॉशिंगटन में महिलाओं ने एक विशाल मार्च निकाला. प्रदर्शनकारी महिला अधिकारों पर ट्रंप के नजरिये का विरोध कर रहे थे.

न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, इस रैली में कम-से-कम 4,70,000 लोग शामिल हुए थे. बिजनेस इनसाइडर के मुताबिक, इस रैली के कई आलोचकों का मानना था कि इन सबके पीछे एक शख्स का “अदृश्य हाथ है, जो ना केवल लिबरल (विचारधारा) प्रोटेस्टों की फंडिंग कर रहा है, बल्कि दुनिया की संपत्ति पर भी उसका नियंत्रण है और वह एक खास वैश्विक व्यवस्था को आगे बढ़ा रहा है.”

यूरोपीय संसद में एक सत्र के दौरान हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान मुस्कुराते हुए
हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान उन राजनेताओं में हैं, जो सोरोस पर सबसे ज्यादा हमलावर रहे हैं

अमेरिका में अश्वेतों के अधिकार से जुड़े “ब्लैक लाइव्स मैटर” मुहिम में भी सोरोस का हाथ होने के आरोप लगे. खुद ट्रंप ने सोरोस के खिलाफ बयान दिए. साल 2018 में अपने विरुद्ध हुए एक प्रदर्शन की आलोचना करते हुए ट्रंप ने आरोप लगाया कि प्रदर्शनों में इस्तेमाल हुए पोस्टरों का पैसा सोरोस ने दिया है. साल 2020 में ‘फॉक्स न्यूज’ को दिए एक इंटरव्यू में ट्रंप ने आरोप लगाया कि अमेरिका में हो रहे एंटीफा (फासिस्ट और नस्लवाद विरोधी अभियान)  प्रदर्शनों को जिनसे कथित फंडिंग मिल रही है, उनमें सोरोस भी हैं. बकौल ट्रंप, प्रदर्शनकारियों के कुछ पोस्टरों को देखकर साफ था कि उन्हें “हाई क्लास प्रिंटिंग शॉप” में बनाया गया था.

2017 में यूरोपीय देश रोमानिया में बड़े स्तर पर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनकारियों का आरोप था कि सरकार भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को कमजोर करने की कोशिश कर रही है. इन प्रदर्शनों के पीछे भी सोरोस का हाथ होने के आरोप लगे. कहा गया कि वो प्रदर्शनकारियों को पैसे दे रहे हैं.

साल 2013 में तुर्की में बड़े स्तर पर नागरिक प्रदर्शन हुए. इन्हें ‘गेजी पार्क प्रोटेस्ट’ कहा गया. यहां भी सोरोस का नाम आया. तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोआन ने देश के मानवाधिकार कार्यकर्ता और कारोबारी ओस्मान कवाला को “सरकार का दुश्मन” करार देते हुए आरोप लगाया कि कवाला को सोरोस से मदद मिली. कवाला 2017 से तुर्की की जेल में बंद हैं. एर्दोआन ने दावा किया कि सोरोस देशों को बांटने और बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं. साल 2018 में सोरोस के ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशन’ ने एर्दोआन के आरोपों को निराधार बताते हुए तुर्की में अपना कामकाज बंद करने की घोषणा की.

हंगरी में विक्टर ओरबान को चुनौती

हंगरी का उदाहरण, ओरबान के बयान

भारत में सोरोस के एक राजनीतिक संदर्भ बनने से काफी पहले यह नाम यूरोप में चर्चित रहा है. हंगरी के प्रधानमंत्री ओरबान संभवत: सोरोस पर सबसे हमलावर रहे हैं. वह सोरोस को डीप-स्टेट एक्टर बताते हुए “अंकल सोरोस” और “सोरोस नेटवर्क” जैसे कई संबोधन देते आए हैं.

ओरबान, सोरोस को “संसार का सबसे भ्रष्ट आदमी” बता चुके हैं. वह प्रवासियों और शरणार्थियों समेत हंगरी के कई मसलों के पीछे सोरोस की भूमिका बताते हैं. कई आलोचकों का कहना है कि ओरबान चुनावी फायदों के लिए सोरोस का डर पैदा करते हैं.

मसलन, साल 2017 में ओरबान सरकार ने एक मीडिया अभियान चलाया. इसमें हंगरी के लोगों से कहा गया कि उन्हें सोरोस को जीतने नहीं देना चाहिए. खबरों के मुताबिक, सरकारी खर्च पर राजधानी बुडापेस्ट समेत कई शहरों में बिलबोर्ड लगाए गए, जिनमें  सोरोस को “पपेट मास्टर” यानी, परदे के पीछे रहकर कठपुतली नचाने वाला बताया गया.

ओरबान की इस राजनीतिक शैली के ही संदर्भ में ‘बजफीड न्यूज’ ने साल 2019 में अपने एक विस्तृत लेख में लिखा, “सोरोस का शैतानीकरण, समानांतर वैश्विक राजनीति के सबसे प्रमुख लक्षणों में से एक है. और यह, कुछ अपवादों को छोड़कर, झूठ का पुलिंदा है.”

कैरोलीन डी ग्रॉयटर, डच अखबार ‘एनआरसी हांडेल्सब्लाट’ में यूरोप की संवाददाता हैं. इस साल यूरोपीय संसद के चुनाव से पहले ग्रॉयटर ने ‘फॉरेन पॉलिसी’ के लिए लिखे एक लेख में लिखा, “यह पहली बार नहीं है जब ओरबान ने एक चुनावी अभियान में सोरोस को एक पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया हो. वह पहले भी हंगरी में चुनाव जीतने के लिए ऐसा कर चुके हैं.” ग्रॉयटर लिखती हैं कि कैसे ओरबान ने “सोरोस मॉनस्टर” का इस्तेमाल करते हुए दो बार हंगरी में चुनाव जीते और फिर 2019 में यूरोपीय चुनाव जीतने के लिए भी यही रणनीति इस्तेमाल की.

दिलचस्प यह है कि 1980 और 1990 के दशक में ओरबान खुद भी सोरोस से फंड पा चुके हैं. नवंबर 2019 में ‘गार्डियन’ को दिए एक इंटरव्यू में सोरोस ने इस संदर्भ में कहा था, “मैंने ओरबान को मदद इसलिए दी, क्योंकि उस समय वह ओपन सोसायटी के बहुत सक्रिय समर्थकों में थे. लेकिन वह (आगे चलकर) एक शोषक बन गए और माफिया स्टेट के रचनाकार भी.”

इस समूचे मामले में राजनीतिक शैली एक अहम पक्ष है. सोरोस जहां लिबरल डेमोक्रैसी को समर्थन देने की बात करते हैं, वहीं ओरबान सरकार के ऐसे स्वरूप और स्वभाव की पैरोकारी करते हैं जो उन्हीं के शब्दों में “इलिबरल” है. ओरबान के कार्यकाल से आंकें, तो यह शैली प्रेस की आजादी को दबाने, स्वतंत्र शैक्षणिक विमर्श को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने और यहां तक कि न्यायपालिका की भूमिका की भी कांट-छांट में भरोसा रखती नजर आती है.

यह राजनीतिक शैली यह भी मानती है कि दरअसल उदारवाद की खामियां व दोहरापन ही लोगों में असहिष्णुता बढ़ा रही है. अनुदारवादी राजनीति एलजीबीटीक्यू लोगों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील नहीं है, आप्रवासियों को देश की संस्कृति और स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए खतरा मानती है और महिलाओं को बहुत हद तक पारपंरिक भूमिकाओं में सीमित करना चाहती है.

अनुदारवादी लोकतंत्र के नाम पर ओरबान चाहते हैं कि मीडिया सरकार की बातों को प्रसारित करने का मंच बने. जब वह यह कहते हैं कि लाखों की संख्या में शरणार्थियों को यूरोप भेजने की एक तथाकथित साजिश “सोरोस प्लान” का मकसद यूरोप को तबाह करना है, तो वह चाहते हैं कि मीडिया इस दावे की पड़ताल करने की जगह तर्क देकर आरोपों की पुष्टि करे.

‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ यूरोपीय संघ में मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में काम कर रहा एक संगठन है. इसके मुताबिक, ‘लिबरल डेमोक्रैसी’ के मूलभूत तत्व हैं, सभी नागरिकों को चुनाव में भाग लेने का अधिकार ताकि वे देश की निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनें. स्वतंत्र, निष्पक्ष और नियमित चुनाव. अभिव्यक्ति व सभा की आजादी. निर्वाचित जनप्रतिनिधि. मीडिया व सूचना की स्वतंत्रता.

अगर इलिबरल गवर्नेंस, लिबरल के उलट होने की बात करता है तो स्वाभाविक ही वो उपरोक्त तत्वों का भी विरोधी है. ‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ के मुताबिक, एक बार अगर “इलिबरल” राजनेता चुनकर आ जाए तो वह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुख्य स्तंभों को हिलाने के लिए कई रणनीतियों का इस्तेमाल कर सकता है. मसलन, ध्रुवीकरण. स्वतंत्र मीडिया पर हमला करना. न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करना. राजनीतिक विरोध और विपक्ष को दबाना. नागरिक समाज को ‘बलि का बकरा’ बनाना और निजता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकारों को सीमित करने की कोशिश करना.

ओरबान ने सत्ता में आने पर खुद ही कहा था कि उनकी सरकार हंगरी में एक इलिबरल स्टेट बना रही है. इसके लिए वे सरकार पर निगरानी करने वाली संस्थाओं पर लगातार नियंत्रण बढ़ाते रहे हैं. ‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ के अनुसार, धुर-दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा वाले ओरबान की फिडेश पार्टी ने हंगरी में “अनुदार लोकतंत्र का एक आदर्श रूप बनाया है, जिसने दुनियाभर में ऐसे राजनीतिक नकलचियों के लिए रास्ता तैयार किया है.”

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