गुरुवार को कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बोलते हुए अमिताभ बच्चन ने कहा कि आज भी जब सिनेमा की बात आती है तो अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल उठाए जाते हैं. दूसरी ओर, शाहरुख ने उस समय के सामूहिक आख्यान के आकारक के रूप में सोशल मीडिया की शक्ति को स्वीकार किया। लेकिन खान ने यह कहते हुए इसकी आलोचना भी की कि यह देखने की एक निश्चित संकीर्णता से प्रेरित है जो मानव स्वभाव को अपने तक ही सीमित कर देता है और इस संबंध में सिनेमा की भूमिका है। यह बयान सोशल मीडिया पर उनकी आने वाली फिल्म “पठान” के बहिष्कार के चलन के बाद आया है।
हालांकि नागरिक स्वतंत्रता के प्रश्न हमेशा संबोधित करने के लिए महत्वपूर्ण होते हैं, स्थिति और अवसर परिभाषित करते हैं कि इसके पीछे वास्तविक कथा क्या है। जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संबंध है, भारत के पास अधिकांश देशों की तुलना में यह अधिक है।
कुछ दिन पहले, पीएम पर उन्हें मारने के लिए कहने वाली एक घृणित टिप्पणी को भी विपक्ष द्वारा मौन सहमति प्रदान की गई थी। खासकर बॉलीवुड की बात करें तो क्या हाल ही का समय 1975 के बराबर भी है, जब किशोर कुमार के गानों को इंदिरा गांधी के आदेश का पालन न करने के कारण ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से प्रतिबंधित कर दिया गया था।
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अस्पष्ट का अनावरण
जब नागरिक स्वतंत्रता की बात आती है तो दीदी का बंगाल हमेशा उत्पीड़क का प्रतीक रहा है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि ममता शासन के तहत राजनीतिक हिंसा ने न केवल विपक्ष के नेताओं बल्कि विभिन्न दलों के समर्थकों की नागरिक स्वतंत्रता को भी नष्ट कर दिया है।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, बंगाल 2019 में राजनीतिक हत्याओं में चार्ट में सबसे ऊपर है। पूर्व एडीजी और व्हिसल-ब्लोअर आईपीएस अधिकारी नजरुल इस्लाम को लगता है कि “पुलिस बल का राजनीतिकरण” “प्रचलित अराजकता” का प्रमुख कारण है।
कभी किसी विवादित विषय पर न बोलने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन ‘पठान’ के विवाद पर बोल पड़े हैं। ये भी स्पष्ट हुआ कि अट्ठाईसवाँ कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का मंच उन डरे हुए लोगों का मंच बन गया, जो इन दिनों अपने विचार अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे। जिनको सदी का महानायक कहा जाता है, उनकी चुप्पी टूटी भी तो पठान के एक अधनंगे गीत पर। आम तौर पर देश में वैचारिक युद्ध की स्थिति बनी ही रहती है लेकिन इस प्रकरण से कई अदृश्य निशाने भी साधे जा रहे हैं।
कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मंच से शाहरुख़ खान और महेश भट्ट के बाद अमिताभ ने भी अपने विचार प्रकट किये। अमिताभ ने पहला प्रहार ही दक्षिण भारतीय सिनेमा पर कर दिया। उन्होंने कहा ‘ऐतिहासिक विषयों पर बनने वाली मौजूदा दौर की फिल्में काल्पनिक अंधराष्ट्रवाद में जकड़ी हुई हैं। उनका इशारा ‘आरआरआर’ जैसी फिल्मों के लिए था।
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अमिताभ ने आगे कहा ‘1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट ने सेन्सरशिप के ढांचे को तैयार किया था, जो कि अब फिल्म सर्टिफिकेशन की मदद करने के बजाय’ यहाँ से अमिताभ वाक्य अधूरा छोड़ देते हैं। उनके इस अधूरेपन में 1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट में प्रस्तावित बदलाव से नाराज़गी दिखाई देती है। आगे वे कहते हैं ‘मेरे जो सहकर्मी स्टेज पर मौजूद हैं, वे इस बात से सहमत होंगे कि अब भी नागरिकों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ ट्वीटर और फेसबुक पर इन दिनों जो माहौल है, उस पर ही अमिताभ ने अपनी बात कही है।
बच्चन साहब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गली दोनों ओर से खुली है। इस गली का दरवाजा आपके बंगले के गेट पर आकर समाप्त नहीं हो जाता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ लेकर आपकी ही पत्नी ने सदन में थाली में छेद वाला बयान दिया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या केवल बॉलीवुड को होनी चाहिए, यदि आम नागरिक अपनी अभिव्यक्ति दे रहा है तो उस पर आप सवाल क्यों और कैसे उठा रहे हैं।
सिनेमेटोग्राफ एक्ट की बात वे इसलिए करते हैं क्योंकि उसमे प्रस्तावित बदलाव से बॉलीवुड सहमत नहीं है। सरकार सुनिश्चित करना चाहती है कि कोई भी फिल्म जनता की संवेदनाओं को आहत न करे लेकिन बॉलीवुड इसे स्वीकार नहीं करना चाहता। इसी माह दिसंबर में अमिताभ बच्चन के वकील हरीश साल्वे ने एक याचिका दायर की।
याचिका में कहा गया कि अमिताभ बच्चन की आवाज, तस्वीर, नाम या फिर उनकी पर्सनैलिटी का किसी भी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये उनके निजी अधिकार हैं। अमिताभ के वकील ने इसके लिए पर्सनैलिटी राइट्स की दलील दी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्राइवेसी और पब्लिसिटी से जुड़ा अधिकार समाहित है।
इससे समझ आता है कि अमिताभ अपनी आवाज़ को संपदा मानते हैं और इसकी रक्षा के लिए वे कितने सजग हैं। जैसा अधिकार अमिताभ के पास है, वैसा ही अधिकार भारतीय जनता को भारत के संविधान ने अनुच्छेद 19(1)(ए) के रुप में दिया है। फिर अमिताभ को उन लोगों के अधिकारों का ध्यान रखना चाहिए, जिन्होंने उन्हें महानायक बना दिया।
बच्चन साहब को ये भी जानना चाहिए कि काल्पनिक अंधराष्ट्रवाद वाली फ़िल्में विश्वभर में 1200 करोड़ कमाती है। वैसे एक काल्पनिक राष्ट्रवाद की भौंडी फिल्म आई थी ‘ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान’, इस फिल्म में बच्चन साहब ने काम किया था। फिल्म थियेटर्स में एक सप्ताह भी नहीं चली। इससे तो अच्छा बच्चन साहब और यशराज फिल्म्स ‘काल्पनिक अंधराष्ट्रवाद’ का सहारा लेकर फिल्म हिट करा सकते थे। बच्चन साहब को अपना निजी चश्मा उतारकर पब्लिक का चश्मा पहन लेना चाहिए। उन्हें सच्चाई ठीक-ठीक दिखाई देने लगेगी।